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“मुझे इत्र की गन्ध पसंद नहीं, मुझे शील की गन्ध, चरित्र की गन्ध,

सबसे अधिक विश्वविद्यालय की सुगंधा पसंद है !!"

ऐसा कथन था शिक्षा के प्रति अद्भुत विचार धारा रखने वाले महामना मदन मोहन मालवीय जी का ।

पंडित मदन मोहन मालवीय जी का जन्म २५ दिसंबर, १८६१ को इलाहाबाद (प्रयाग) में हुआ था । एक धार्मिक परिवार में पले- बड़े मालवीय जी को धार्मिक संस्कार विरासत में मिले थे । स्वभाव से शालीन मालवीय जी शिक्षा के महत्व को भली भाति समझते थे इसलिए उन्होंने न केवल स्वयं को विभिन क्षेत्रो में उत्तीर्ण  किया परन्तु एक सम्पूर्ण शिक्षित राष्ट्र का सपना भी देखा । 

स्वपन एक आशा

मालवीय जी यह जानते थे की अपने देश के युवा युविकाओ को अपने ही देश में उच्च शिक्षा देने का स्वपन अधिक कठिन होगा परन्तु असंभव नहीं ।  यह उनका विश्वास ही था जो आगे चल कर मूर्त रूप "बनारस हिन्दू  विश्वविद्यालय (बी. एच .यु ) के रूप में थापित हुआ । 

कठिनायो से बड़े स्वपन

लगभग ४,०६० एकड में फैले इस विश्वविद्यालय की स्थापना एक सरल कार्य नहीं था। १२-१३ वर्षों तक देश के प्रत्येक दानी के दर दस्तक देकर, एक एक पैसा जोड़कर मालवीय जी ने ४ फरवरी १९१६ को यह करिश्मा कर दिखाया, जिसे दूसरों ने असम्भव करार दे दिया था । इसी का परिणाम है की वर्त्तमान समय में हज़ारो विद्यार्थी और प्रतिमा शाली अध्यापको के साथ (बी. एच .यु ) एशिया का सबसे बड़ा विश्वविद्यालय बन गया है।  आज यहाँ इंजीनियरिंग, एग्रीकल्चर, इकोनॉमिक्स, मॉडर्न डॉक्टरेट, आर्ट्स, आयुर्वेदा, से लेकर वेद, उपनिषद, साहित्य, व देश विदेश की विभिन भाषाओ का अध्ययन किया जा रहा है।

योगदान का सफर

प्रतिभा के धनि मालविय जी का योगदान केवल अध्यापन तक सिमित नहीं था। अत्यंत सौम्य हृदय और सरल जीवन व्यतीत करने वाले मदन मोहन मालवीय जी की पहचान एक पत्रकार, समाज सुधारक, नेता, वकील और एक कुशल वक्त की भी थी। वह अपने आप में एक संस्था थे। 

महामना मालवीय जी की विचार धारा

  • शिक्षा के बिना मनुष्य पशुतुल्य होता है - मालवीय जी का यह मानना था की शिक्षा के बिना व्यक्ति और देश का विकास असंभव है। 
  • कठिनाईयों से बड़े स्वपन - बी. एच .यु जैसे प्रतिष्ठित संस्थान की स्थापना एक स्वपन का ही परिणाम माना जाता है
  • आयुर्वेद प्रेमी - मालवीय जी आयुर्वेद की ताकत को भली प्रकार समझते थे इसलिय आयुर्वेद में बताये  सिद्धांतो का अभयास अपने जीवन में किया करते थे।  वह प्रातः ब्रह्म मुहूर्त में उठकर बादाम के तेल से अभयंग कर स्नान किया करते, और फिर रेशमी पीताम्बर पहनकर पूजा करते।  सादा खाना और अधिक दुग्ध का पान किया करते , माथे पर चन्दन और विभिन जड़ी बूटियों का सेवन इस बात का प्रतिक है की वह आयुर्वेद को जानते और समझते भी थे। 
  • देश सेवा से बड़ा और कोई धर्म नहीं - हिन्दू विचार धारा होने के बावजूद मालवीय जी सभी धर्मो को एक सामान समझते थी और देश सेवा को हो ही अपना धर्म बताते थे। 

उपलब्धियाँ का दौर

महामना मदन मोहन मालवीय जी की उपलब्धियो को शब्दों में व्यक्त कर पाना कठिन कार्य है। यही कारण रहा होगा की

  • कविवीर रविंद्रनाथ टैगोर जी ने इन्हे सबसे पहले "महामना " के नाम से पुकरा था। 
  • उसके बाद महात्मा गाँधी जी ने " महामना- A man of large heart कहकर सम्मानित किया

हालांकि यह विडम्बना ही है की अपना सम्पूर्ण जीवन देश को समर्पित करते हुए भी महामना मदन मोहन मालवीय जी को स्वतंत्र भारत में साँस लेने का सौभाग्य नहीं मिल पाया और वह १२ नवंबर १९४६ को हमे छोड़ कर चले गए।  मालवीय जी को सम्मानित करने के उदेश्य से भारत सरकार ने २५ दिसंबर २०१४ को उनके १५३ वे जन्मदिन पर भारत रतन से नवाज़ा । 

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